Zenab rehan

लाइब्रेरी में जोड़ें

चौथा अध्याय





इसी तरह कर्म के त्याग को भी लें। यदि हमारे सामने किसी गरीब या निर्दोष को कोई जालिम पीटता हो तो उसकी रक्षा करने के लिए दौड़ पड़ना हमारा कर्तव्य है। मगर हम उसे नहीं करते हैं। यही कर्म का त्याग हुआ। मगर इसकी तीन हालतें होने से इसके भी तीन रूप हो जाते हैं। यदि हम जान-बूझ के उसकी मदद को न जाएँ तो यही कर्म त्याग होगा या विकर्म या पाप। यदि चाहते हुए और भरसक यत्न करने पर भी न जा सकें; क्योंकि किसी ने हमें कस के पकड़ लिया या बाँध दिया हो, तो कर्म का त्याग या अकर्म होते हुए भी यही हो गया हमारा कर्म, जिसे अच्छा काम, सत्कर्म या पुण्य कहिए। मगर ऐसा भी हो सकता है कि हम ऐन मौके पर इधर समाधिस्थ हो गए और उधर वह पीटपाट शुरू हुई। हमने सारी तैयारी पहले से ऐसी कर ली थी कि रुकना कथमपि संभव न था। या ऐसा भी हो सकता है कि हममें आत्मानंद की ऐसी मस्ती हो कि सुध-बुध होई न। ऐसी दशा में उसकी मदद के लिए हमारा न जाना सचमुच कर्म-त्याग है।

अब रही विकर्म की बात। साधारणत: हिंसा बुरी है, विकर्म है। फिर भी लोग इसे बराबर करते ही रहते हैं। इसीलिए वह विकर्म का विकर्म ही रहेगी जब तक हम रोजी-रोजगार, पेट या महज बैरविरोध आदि के खयाल से यह चीज करते रहेंगे। मगर आखिर धर्म-व्याध भी तो कसाई का ही काम करता था। हालत यह थी कि एक तो कोशिश करके थक चुका था; फिर भी उससे उसका पिंड छूट न सका। दूसरे उसके करने या न करने में - होने या न होने में - और उसके परिणामस्वरूप पैसे मिलें या न मिलें, या और कुछ हो या न हो, उसे किसी बात की जरा भी परवाह न थी - उसे अव्वल दर्जे की बेफिक्री थी, मस्ती थी। इसीलिए यह विकर्म उसके लिए अकर्म या कर्मों का सच्चा त्याग था। ऐसा हर समझदार, हर आत्मज्ञानी कर सकता है, करता है। लेकिन मान लें कि वही धर्म-व्याध या दूसरे ही इतनी दूर तक न पहुँचे हों। जीविकार्थ उन्हें कुछ न कुछ खामख्वाह करना भी पड़े। इसी के साथ कसाई का काम उनका खानदानी पेशा होने के कारण - जैसी कि धर्म-व्याध की बात थी - उन्हें सुलभ होने पर भी इससे बचने की सारी कोशिश उनने कर ली। मगर मजबूर हो गए और दूसरी जीविका मिली ही नहीं। ऐसी दशा में केवल जीविका के खयाल से ही वही विकर्म या हिंसा का काम करने पर भी वही उनके लिए कर्म या सत्कर्म हो जाएगा। मनुस्मृति के 12वें अध्याबय में लिखा है कि विश्वामित्रादि ऋषियों ने कुत्ते आदि का मांस खा-खिला के घोर दुष्काल में प्राण तथा धर्म बचाए। छांदोग्य उपनिषद् (1। 10। 1-7) में लिखा है कि हाथी के जूठे उड़द खा के उषस्ति ऋषि ने प्राणों और धर्म दोनों की ही रक्षा की! इसलिए ऐसा तो होता ही रहता है।

हमने जो कुछ लिखा है वह अक्ल में आने वाली चीज है। व्यवहार में भी ऐसा होता आया है, होता है और होता रहेगा भी। इसीलिए गीता के इस श्लोक का भी अर्थ ऐसा ही करना उचित है जो व्यवहार के अनुकूल हो। यह मान लेना कि कर्म को हमेशा अकर्म ही समझते और देखते रहें, निरी नादानी है। वैसी मनोवृत्ति जब तक न हो यह कैसे हो सकता है और यह मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही मनोवृत्ति की और वह असंग भी है। मगर कर्मों का ताल्लुक तो आखिर दूसरों से भी होता है न? और अगर वे ऐसा न समझें तो भी क्या उनके लिए भी वह अकर्म ही हो जाएगा? यह उलटी बात होगी। एक ही कर्म किसी के लिए सत्कर्म, किसी के लिए दुष्कर्म और किसी के लिए अकर्म या कर्मत्याग हो सकता है। अपनी अपनी भावना के अनुसार। यही बात हरेक कर्म में निरपवाद लागू है। पूजा-पाठ, समाधि तक में हिंसा तो होती ही है। और नहीं तो साँस लेने या शरीर की रगड़ से ही जानें लक्ष-लक्ष कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अष्टावक्र ने अपनी गीता में कहा है कि नादान की निवृत्ति या कर्मत्याग भी प्रवृत्ति या कर्म बन जाता है और विवेक की प्रवृति भी निवृत्ति बन जाती है; 'निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते। प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी' (18। 61)। इसमें 'भी' के अर्थ में जो 'अपि' शब्द है वही हमारे आशय को व्यक्त कर देता है। 20वें श्लोक के 'प्रवृत्तोऽपि' वगैरह भी यही बात व्यक्त करते हैं।

हमने पहले ही कहा है कि चौथे अध्या य का अपना विषय इसी श्लोक से शुरू होता है। इसके पहले तो दूसरे, तीसरे अध्यायय के ही प्रसंग की बातें आई हैं। यदि कोई भी विवेकी गौर करे तो यह जरूर मानेगा कि कर्म करने और उसके त्याग या संन्यास की यह बारीकी निहायत जरूरी चीज है जो छूटी थी। इसीलिए गीता के चौथे अध्या्य ने इसे पूरा किया है। इसमें भी असल चीज है कर्मत्याग या संन्यास ही। इसी के बारे में तो उलझनें पैदा होती हैं और लोग अंट-संट कर बैठते हैं, मान बैठते हैं। लोगों को धोखे और भ्रम भी तो संन्यास या कर्मत्याग को ही ले के होते हैं। इसीलिए उसका खासतौर से स्पष्टीकरण यहाँ जरूरी था। यह संन्यास ज्ञान का साधन है और ज्ञान के बल से ही यह होता भी है। इस प्रकार एक तरह से इन दोनों का परस्पर संबंध है - ये दोनों अन्योन्याश्रय वाले हैं यह बात भी आगे स्पष्ट की जाएगी। इस तरह यही चीजें इस अध्यारय के मुख्य विषय हैं। इसीलिए इसे ज्ञानकर्मसंन्यासयोग के नाम से ही अंत में कहेंगे भी।

इस बात का निरूपण इस 18वें श्लोक से ही शुरू हो के 37वें तक चला जाता है। बीच-बीच में एकाध बार ज्ञान की बात प्रसंग से आई है। अन्यथा आगे के 19 श्लोक इसी एक ही श्लोक के व्याख्यान स्वरूप हैं। अनेक प्रकार से उनमें यही बात-इसी श्लोक का अभिप्राय-व्यक्त किया गया है। यह बात उन श्लोकों के अर्थ लिख चुकने पर ही हम बताएँगे। तभी समझ में आसानी होगी भी।

यस्य सर्वे समारंभा: कामसंकल्पवर्जिता:।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पंडितं बुधा : ॥19॥

जिस (आदमी) के सभी काम कामना तथा फल आदि की आसक्ति के बिना ही होते हैं, (इसलिए) जिसने ज्ञानरूपी आग में सभी कर्म जला दिए हैं, विद्वान लोग उसी को पंडित कहते हैं। 19।

त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किं चित्करोति स:॥20॥

(क्योंकि) ऐसा आदमी कर्मों और उनके फलों की आसक्ति को मिटा के बेपरवाह और हमेशा मस्त रहता है। (इसीलिए) वह कर्मों को करता हुआ भी (दरअसल) कुछ भी नहीं करता है। 20।

निराशीर्यत्तचि त्ता त्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।

शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥21॥

जो सभी इच्छा-आकांक्षाओं को लात मार चुका है, जिसने मन और बुद्धि को अपने काबू में कर लिया है (और) जिसने सभी डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लिया है, (ऐसा आदमी) केवल देह या इंद्रियों से ही कर्मों को करता हुआ भी पाप और बुराई के पास जाता तक नहीं। 21।

यदृच्छालाभ संतु ष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।

सम: सि द्धा वसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निबध्य।ते॥22॥

यों ही जो कुछ भी मिल जाए उसी से जो संतुष्ट हो, रागद्वेष - हर्ष-विषाद - काम-क्रोधादि द्वन्द्वों से जो बहुत दूर हो गया हो, जिसमें बैरविरोध या दूसरों की सफलता से होने वाली जलन न हो और जिसके दिल पर काम के पूरा होने या न होने का कोई प्रभाव न पड़े वह आदमी सभी कर्मों को करके भी बंधन में हर्गिज नहीं पड़ता। 22।

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।

यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते॥23॥

जो आसक्तिशून्य है, जो सभी बंधनों से रहित है, (इसीलिए) जिसकी बुद्धि आत्मज्ञान में ही डूबी है - जो स्थितप्रज्ञ है - और जो (केवल) यज्ञ के ही लिए कर्म करता है उसके कर्म जड़-मूल से खत्म हो जाते हैं। 23।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥24॥

(जिस यज्ञ में ऐसी भावना है कि) आहुति आदि के साधन स्स्रुव आदि ब्रह्म ही हैं, घृतादि हवन के पदार्थ भी ब्रह्म हैं, ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी यजमान ब्रह्मरूपी हवन क्रिया करता है, उस समूची यज्ञात्मक क्रिया को ब्रह्म का रूप मिल जाने से वह पूर्ण समाधि ही हो गई। इसलिए उससे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है। 24।

दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजु ह्व ति॥25॥

दूसरे योगी इंद्र आदि देवताओं के ही यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। कुछ और लोग ब्रह्मरूपी अग्नि में ही देहधारी आत्मा का हवन ज्यों का त्यों कर देते हैं। 25।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमागिनषु जु ह्व ति।

शब्दादीन्विषयानन्य इंद्रियाग्निषु जु ह्व ति॥26॥

(चौथे प्रकार के) कुछ लोग श्रोत्र आदि इंद्रियों का हवन संयमरूपी आग में करते हैं। (पाँचवें) दलवाले शब्द आदि विषयों का हवन ज्ञान-इंद्रियरूपी अग्नि में ही करते हैं। 26।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयम योगाग्नौ जु ह्व ति ज्ञानदीपिते॥27॥

(छठे प्रकार के) लोग सभी इंद्रियों की तथा प्राण की भी सभी क्रियाओं का हवन मन के संयमरूपी अग्नि में, जो ज्ञान के द्वारा खूब धौंकी जा चुकी है, करते हैं। 27।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योग यज्ञास्तथाऽपरे।

स्वा ध्या यज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥28॥

दूसरे भी कल्याणार्थ यत्न करने वाले लोग हैं जिनके व्रत या यज्ञों के नियम बड़े ही सख्त हैं। (ये पाँच दलों में विभक्त हैं और वे हैं) अन्नादि पदार्थों से यज्ञ करने वाले, तपरूपी यज्ञ के करने वाले, अष्टांग योगरूपी यज्ञ करने वाले, सद्ग्रंथों के पाठरूपी यज्ञ के कर्त्ता और ज्ञान यज्ञ के करने वाले। 28।

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगतीरु द्ध्वा प्राणायामपरायणा:॥29॥

(तीन तरह के और भी लोग हैं जो यज्ञ करते हैं और उनमें) एक तो अपान में प्राण का ही हवन यानी पूरक करते हैं। दूसरे प्राण में ही अपान का हवन यानी रेचक करते हैं। तीसरे प्राण और अपान दोनों की क्रिया रोक के कुंभक में ही लगे रहते हैं। 29।

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:॥30॥

यज्ञशिष्टामृतभुजो यांति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम॥31॥

(पंदरहवें प्रकार के) कुछ और भी हैं जो खानपान आदि पर सख्त संयम करके इंद्रियों की क्रियाओं को प्राण की क्रियाओं में ही हवन कर देते हैं। (इस तरह) ये सभी यज्ञ करने वाले इन्हीं यज्ञों के द्वारा (अपने दिल-दिमाग की सभी) गंदगियों को धो डालते हैं (और) यज्ञशिष्ट - यज्ञ के बाद बचे हुए - अमृत को ही भोगते हुए सनातन - नित्य - ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं। हे कुरुसत्तम् - कुरुवंश के दीपक, - जो यज्ञ नहीं करता उसका तो काम यहीं नहीं चल सकता। परलोक का तो कहना ही क्या ? 30। 31।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान् वि द्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥32॥

इस प्रकार अनेक तरह के यज्ञ वेद में प्रमुख रूप से कहे गए हैं। कर्मों से ही वे सभी तैयार होते हैं ऐसा जान लो; (क्योंकि) ऐसा जानने से ही मुक्त होगे। 32।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥33॥

हे परंतप, घृतादि भौतिक पदार्थों से किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ कहीं अच्छा है। (क्योंकि) हे पार्थ, (आखिर) सभी कर्मों का अंतिम ध्येाय ज्ञान ही तो है और ज्ञान से ही कर्मों का खात्मा भी होता है। 33।

तद्वि द्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्त त्त्व दर्शिन:॥34॥

तो यह याद रखो, नम्रतापूर्वक शरण में जाने, (यथाशक्ति) सेवा करने (और अवसर पा के) पूछने पर ही तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे। 34।

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥35॥

हे पांडव, जिस ज्ञान को हासिल कर लेने से तुम्हें ऐसा मोह न होगा (और) जिसके चलते सभी पदार्थों को अपने आप में देखोगे और मुझमें भी। 35।

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥36॥

अगर तुम सभी पापियों से कहीं बढ़-चढ़ के भी पापी हो। (तो भी) सभी पापों - पाप समुद्र - को इस ज्ञान की नाव से ही पार कर जाओगे। 36।

यथैधांसि समि द्धो ऽग्निर्भस्मात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥37॥

हे अर्जुन, जिस तरह धक्धक् जलने वाली आग समूचा ईंधन (बात की बात में ही) भस्म कर डालती है। उसी तरह ज्ञानरूपी आग भी सभी कर्मों को भस्म कर देती है। 37।

अब आगे ज्ञान की प्राप्ति के अन्य साधनों का विचार तीन श्लोकों में करके 41वें में पुनरपि इसी कर्म-अकर्म का उपसंहार करेंगे। फिर अंतिम श्लोक में अध्याेय के उपदेश का निचोड़ कह के अर्जुन को तैयार हो जाने की बात कहेंगे। इसलिए उचित है कि यहीं पर पीछे के 19 (19-37) श्लोकों का सिंहावलोकन करके देखें कि उनसे कहाँ तक 18वें के कर्म-अकर्मवाले सिद्धांत का स्पष्टीकरण होता है और संक्षेप में उनमें कहा भी क्या गया है।

सबसे पहले शुरू के पाँच (19-23) श्लोकों को ही लें। इनमें 21वें को छोड़ शेष चारों में कर्मों के करते रहने पर भी मनुष्य कर्मरहित, अकर्म या कर्मत्यागी कैसे हो जाता है यही बात कही गई है। बेशक, चारों में कुछ न कुछ नई बातें भी हैं। फिर भी इन सबों को मिला लेने पर ही हम इस निश्चय पर पहुँच पाते हैं कि किस दशा में - कैसी मनोवृत्ति रहने पर - मनुष्य के कर्म अकर्म बन जाते हैं और कर्मों के करते रहने पर भी कर्मत्याग या संन्यास का काम पूरा हो जाता है। संन्यास का भी तो प्रयोजन यही है कि कर्मों के बंधनों से छुटकारा हो जाए और वही बात यों भी हो जाती है। इसलिए यहाँ अर्थत: संन्यास है, न कि स्वरूपत:। क्योंकि स्वरूपत: तो कर्म करते ही रहते हैं।

तो अब यह देखें कि इन श्लोकों में क्या-क्या बातें हैं जो कर्म को अकर्म बनाती हैं। तत्त्वज्ञान तो चारों में ही स्पष्टतया और अर्थात भी आया ही है। मगर उसके फलस्वरूप जो मनोवृत्ति होती है उसी से हमारा मतलब है। पहले श्लोक में काम और फलादि की कल्पना या उनकी आसक्ति, इन दोनों का पूर्ण त्याग आया है। मगर इसे संकल्प के रूप में कहा है। दूसरे - 20वें - में कर्म और फल की आसक्ति त्याग के साथ बेपरवाही और सदा रहने वाली मस्ती आई है। 22वें में कर्म के पूरे होने-न होने में बेपरवाही - समत्व - के साथ शरीरयात्रा के लिए बेफिक्री, जोई मिले उसी से संतोष, हर्ष-विषाद आदि के लेश का भी न होना और दूसरों की सफलता देख के जलन का न होना यही बातें कही गई हैं। 23वें में हर तरह की असंगता, सभी बंधनों से छुटकारा तथा बुद्धि के तत्त्वज्ञान में डूब जाने के अलावे यह भावना होना कि ये कर्म यज्ञार्थ हो रहे हैं, यही बातें कही गई हैं। इन सबों के मिलाने से ऐसा हो जाता है कि आत्मसाक्षात्कार से ही कर्मों से छुटकारा होता है - वे जल जाते हैं। मगर इसकी - साक्षात्कार की - पहचान क्या है, यही देखना है और यही असल चीज है। इस दृष्टि से पता लगता है कि पहली चीज है बुद्धि का आत्मा की ही ओर टँग जाना और मन का उसी में रम जाना। मगर इसका पता लगता है तब जब कामना, संकल्प, कर्म तथा फल की आसक्ति, ये सभी छूट जाते हैं और हमेशा तृप्ति बनी रहती है। लेकिन ये सभी भीतरी बातें हैं। इसीलिए इनका पता कैसे लगे? यही कारण है कि यह कह दिया है कि न तो किसी आदमी या देवता वगैरह की परवाह हो, न खाने-पीने आदि के लिए हाय-हाय, न किसी से भी बैर-विरोध, न हर्ष-द्वेष और राग और न किसी से चिपकना। इसी के साथ यह भी रहे कि काम पूरा हुआ तो क्या, न पूरा हुआ तो क्या? फलत: निश्चिंत रहे। ये बाहरी पहचान हैं। अंत में इनके साथ यह भी जोड़ दिया कि यज्ञ के लिए ही कर्म कर रहे हैं, कर्म हो रहे हैं यदि यह भावना हो जाए तो सुंदर हो। जरूरी नहीं है कि यह भावना होई। मगर हो तो सुंदर।


   0
0 Comments